google.com, pub-3595068494202383, DIRECT, f08c47fec0942fa0 Suprabhat Suvichar - Suvichar | अनुभव

Suprabhat Suvichar - Suvichar | अनुभव

 Suprabhat Suvichar - Suvichar - विषय  :   "अनुभव"



    अधिप्राये यह तो सही है ना की ईश्वर सदये संसार मे हमेशा व इस सृष्टि में नया जीव, जंतु, प्राणी यहा तक मानव में भी देखने को मिलता है और इस तरह पुराने का अंत होना ताकि सृष्टि का निरंतर क्रिया चलता रहे, और इसी मानव शरीर में से किसी एक शरीर मे, सर्वशक्तिमान बन कर, साकार रूप में, ज्ञान का भेद खोलता है। यानी खुद को होने का एहसास संसार को देता है। यह क्रिया निरंतर आधी-अनादि काल से चले आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा। हालांकि सभी जीव में समान रूप से वह खुद भी वास करता है। पर जो भेदी होता है वही सुरुआत करता है अपना भेद खोलने का, जिसे हम समय का सतगुरु कहते है। इस तरह जो भी इसके सम्पर्क में आता है उसका जीवन सार्थक हो जाता है। जो सम्पर्क में नही होता वह, धर्म, कर्मकांडो व अनगिनत अंध विश्वासो में ही जीवन बिता देता है। 


      इस मे एक शब्द आया है "धर्म", इस शब्द को संसार मे अलग अलग तरीके से लोग साझा करते है और गुट में तब्दीली हो कर अपने को ही छीनभिन कर के बट जाते है। पर वास्तव में धर्म का अर्थ अर्थात मतलब ईश्वर का ज्ञान होता है, और इस ब्रह्मज्ञान के अभाव में अलग अलग ब्यक्तियो के अलग अलग ईश्वर होते है और एक ब्यक्ति के लिये भी अलग अलग अवसरों पर अलग अलग ईश्वर का होने का, वह मान बैठता है। सभी के लिये एक ईश्वर की संकल्पना से सभी के लिये एक धर्म की परीकल्पना समाने आती ही है जो पुरी मानवता के होता है। यह कोर्शिस अपने सन्त निरंकारी मिशन ने सभी धर्मों के सार परमत्व परमात्मा का रहस्योद्घाटन करते हुए और धर्म परिवर्तन की दूर रखते हुए इस उद्देश्य को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त किया है।


     यही वजह है कि आज संसार के हर कोने कोने मे इस मिशन को बड़े ही सम्मान के दृष्टि से देखते है और बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ जुड़ते है इस लिए मिशन में बिना किसी हुज्जत के। कियोकि इस मिशन में जुड़ने के लिये ना धर्म परिवर्तन की चिंता, ना जात बदलने के चिंता, यहा इस मिशन में भी, ना अमीरी-गरीबी, न जात-पात, न काले-गोर का फिक्र, बस एक इंसान दूसरे इंसान की पहचान ब्रह्मज्ञान के माध्यम से कराई जाती है। कि हम सब एक ही परम पिता परमात्मा के संतान है।

      इसी लिये हुजूर बाबा जी कहते थे "एक को मानों एक को जानो और एक हो जाओ" कियोकि "धर्म जोड़ता है तोड़ता नही"

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    प्रकृति पर अनेक प्रकार से इस परम् पिता परमात्मा का बड़ी कृपा है। हर तरह से सुज्जित करे हुए इसे संसार के सजाया है। इसी बीच कई जीवो का भी सृष्टि कर संसार एक नया रूप दिया। इस संसार मे जीने के लिये प्रकृति और हर जीव प्राणी एक दूसरे का पूरक है। इन सब मे मनुष्य सर्वश्रेष्ट है क्योंकि इनमें चेतनता है, विवेक महजूद है। इस मे इतना सोच तो है कि अपनी ज्ञान बुद्धि से खुद को और अन्य जीव प्राणियो और वनस्पति की देख रेख कर सकता है। समय और काल के परिवर्तन में बहुत कुछ बदलाव हुआ। इंसान में भी हुआ। इंसान ने नए टेक्नॉजि के जरिये के बदलाव लाया। इस पर कुछ विचार करे कि आखिर ऐसा क्यो हुआ।


       इन्सान स्वयं तीन भागो मे बटा हुआ है। जैसे शरीर, मन और आत्मा। शरीर को, हम रोज नहा- धो कर अपने शरीर को साफ सफाई करते है। अच्छे साफ सूत्रा कपडे पहनते है और कई चीजे इस्तमाल कर के शरीर को चमकाते है उसे सुंदर बनाते है। हर रोज स्वादिष्ट ब्यानजन को  ग्रहण है जिस में चटपटा खान- पान अधिक होता है ताकि जीभ को स्वाद लगे। इसके साथ साथ अपने मन ही मन मे बहुत सारी चीजो की कामनाए भी करते है और इस तरह कई कामनाओं को हम पुरा भी करते है। इसके साथ साथ मन हर रोज मनोरंजन भी चाहता है, जैसे TV , मोबाईल कंमप्युटर जैसी कई उपकरणों को इस्तमाल करते है। इस तरह हमारा दिन चर्या केवल मन को ही पूर्ति में लगा रहता है। पर एक आत्मा है जो ईश्वर के कृपा से वह भी शरीर मे ही वास करता है। उस आत्मा को भी भूख लगती है पर उसे भोजन नही चाहिएना ही साफ सूत्रा वस्त्र। उसे तो उस मालिक का दीदार चाहिए, साथ साथ अपने प्रभु का भजन-सुमिरण चाहिए। तो प्रस्न उठता है कि क्या हम उसी तरह अपनी आत्मा को रोज पर्याप्त भोजन देते है? तो उत्तर मिलता नही। तो कैसे विवेक व बुद्धि का विकास होगा की प्रकृति और जीव प्राणी का संरक्षण हो सकेगा। हम इतना तो जानते है कि तमाम वनस्पति जिओ प्राणी हम एक दूसरे के पूरक है। एक दूसरे के बिना जीना मुश्किल है। इस जागरूकता के लिये हम आधा एक घंटा भी इस प्रभु परमात्मा का सुमिरण भी ढंग से नही करते। क्या यह सभव नही हो सकता कि हर रोज एक रोटी खा कर हम पेट को भरले? क्या बिना मनोरंजन के सिवाए हम नही रह सकते?तो उत्तर यह आता है "नही" जब हम अपने शरीर और मन को पुरी खुराक देते है, तो आत्मा को क्यो नही दे पाते है? क्योकिं हम दुनिया के रंगबिरंगी के मायाजाल मे अटक गए है। मन उसी ओर भाग रही है। सत्य है, उस ओर ध्यान ही नही जाता। तो जान ले समय के सतगुरु जो परम् पिता परमात्मा निराकार का साकार रूप है उसे पहचाने उसे जानने क्योकी हमे इस संसार मे सतगुरू के सिवाय कोई नही छुडा सकता, इस मायाजाल से। अगर हम अपना और संसार का भला चाहते है तो सतगुरु के चरणों से जुड़े। "जो गुरू से जोङे, उसे विश्वास कहते है" जो हमारे अंग संग है, इसे एहसास कहते हैI तो आ जाओ मेरे मुरशद के चरणो मे और सवाँर लो अपनी जिदंगी, जो खुद इस दुनिया के मालिक होते हुए भी खुद को दास कहता है।


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