"एक मनीऑर्डर माँ के नाम" - Hindi Kahaniyan | Kahani In Hindi | Story In Hindi
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धूप की कुछ किरणें उस पुराने कस्बे की पथरीली गलियों में फैल चुकी थीं। पीली मिट्टी की खुशबू में सुबह की सादगी घुली हुई थी।
डाकिया बाबू अपनी खड़खड़ाती साइकिल पर चढ़े हुए गलियों से होकर जा रहे थे। कंधे पर टंगा बैग कुछ भारी लग रहा था, लेकिन उनके चेहरे पर हमेशा की तरह वही सादगी और स्नेह भरी मुस्कान थी।
तभी मोड़ पर उन्होंने अम्मा को बैठा देखा , वही झुकी कमर, झुर्रीदार चेहरा, और आंखों में एक अधूरी प्रतीक्षा की लौ।
डाकिया रुक गया।
अम्मा ने जैसे ही उसे देखा, अपनी धुंधलाई ऐनक उतारी, आँचल से उसे धीरे-धीरे साफ करने लगीं, मानो उस ऐनक से बेटे का चेहरा दिखने वाला हो।
"बेटा... पहले ज़रा बात करवा दो..."
उनकी आवाज़ में उतनी ही मासूमियत थी, जितनी किसी बच्चे के खिलौने मांगने में होती है।
डाकिए ने थोड़ा झुंझलाते हुए कहा,
"अम्मा, इतना टाइम नहीं रहता मेरे पास कि हर बार आपके बेटे से बात करवाऊं।"
अम्मा धीरे से मुस्कुराईं,
"बस थोड़ी देर की ही तो बात है बेटा..."
उसने हार मानते हुए मोबाइल निकाला, नंबर डायल किया और मोबाइल अम्मा की ओर बढ़ा दिया।
"लो बात कर लो, लेकिन ज़्यादा बात मत करना... पैसे कटते हैं।"
अम्मा का चेहरा खिल गया जैसे सूखी ज़मीन पर बारिश की पहली बूँदें पड़ी हों। फोन कान से लगाकर उन्होंने धीरे-धीरे बेटे की खैरियत पूछी। जवाब के हर शब्द पर उनके चेहरे की झुर्रियाँ जैसे थोड़ी और खुलती चली गईं।
मिनट भर में ही जैसे पूरी जिंदगी जी ली हो।
बात खत्म हुई तो डाकिए ने सौ-सौ के दस नोट निकाल कर अम्मा की तरफ बढ़ाए।
"पूरे हजार रुपये हैं, अम्मा!"
अम्मा नोटों को गिनने लगीं, फिर एक सौ का नोट अलग निकालकर उसकी तरफ बढ़ाया।
"ये रख लो बेटा... हर महीने मेरी बात भी करवाते हो, कुछ तो खर्च होता होगा ना।"
डाकिए ने मना किया,
"अरे नहीं अम्मा! रहने दीजिए।"
लेकिन अम्मा ने ज़िद से उसकी मुट्ठी में नोट थमा दिया और देहरी में लौट गईं।
डाकिया कुछ कदम ही चला था कि कंधे पर किसी का हाथ पड़ा। मुड़कर देखा तो रामप्रवेश खड़ा था — उसी कस्बे में मोबाइल की दुकान चलाने वाला।
"भाई साहब! हर महीने आप ये क्यों करते हैं?"
रामप्रवेश की आँखें उसके चेहरे को टटोल रही थीं।
डाकिया थोड़ा चौंका।
"क्या किया मैंने भाई साहब?"
"आप हर महीने अम्मा को अपनी जेब से पैसे देते हैं, और फिर मुझे फोन पर इनसे बेटे की तरह बात करने के लिए पैसे भी देते हैं... क्यों?"
डाकिए की आँखें झुक गईं, जैसे कोई राज़ अचानक सामने आ गया हो।
थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने कहा:
"मैं पैसे इन्हें नहीं, अपनी अम्मा को देता हूं।"
"मतलब?"
डाकिए ने एक गहरी साँस ली।
"कुछ महीने पहले इनके बेटे की संक्रमण से मौत हो गई थी। एक चिट्ठी आई थी उसके दोस्त की तरफ से।"
"फिर आपने उन्हें बताया क्यों नहीं?"
"नहीं कह पाया भाई साहब। इन आँखों में हर महीने उम्मीद दिखती है, कि बेटा ठीक है और रुपए भेज रहा है। वो उम्मीद तोड़ना नहीं चाहता।"
"लेकिन ये तो आपकी माँ नहीं हैं..."
डाकिए की आँखों में नमी थी।
"मैं भी हर महीने अपनी अम्मा को हजार रुपए भेजता था... अब वो नहीं रहीं। शायद... इन अम्मा के ज़रिए मैं अब भी अपनी माँ को कुछ भेज रहा हूँ।"
रामप्रवेश की आंखें भर आईं।
जिस अम्मा को वो हर महीने फोन पर बेटा बनकर ‘हाँ अम्मा, मैं ठीक हूं’ कहता था, आज उसका झूठ भी सच लगने लगा था।
उस झूठ में एक बेटे की आत्मा थी।
"कुछ रिश्ते खून से नहीं, करुणा से बनते हैं"
इस कहानी में भावनाओं की जो नदी बहती है, उसमें पाठक का मन भीग जाता है —
यह सिर्फ एक बूढ़ी माँ की नहीं,
हर उस माँ की प्रतीक्षा की कहानी है,
जो बस "एक आवाज़" के लिए जीती है।
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