मां की परछाई - Maa Ki Parchhai| Hindi Kahaniyan | Kahani In Hindi | Story In Hindi
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पेइंग गेस्ट हाउस की मालकिन मालती ने जैसे ही देखा कि दीवाली की रात अमृता के कमरे में बत्ती जल रही है, वह चौंक उठीं। बाकी सब लड़कियाँ अपने घर चली गई थीं, लेकिन अमृता?
वे धीरे-धीरे उसके कमरे में पहुँचीं और स्नेह से बोलीं,
“अरे अमृता, सब लड़कियाँ दीवाली मनाने घर चली गईं… तुम क्यों नहीं गईं? तुम्हारे ऑफिस में भी तो छुट्टी होगी?”
अमृता ने जबरन मुस्कान ओढ़ते हुए जवाब दिया,
“नहीं आंटी, बस मन नहीं था जाने का… कोई खास बात नहीं। मैस बंद हो गया है, तो बाहर खा लूंगी। चिंता मत कीजिए।”
लेकिन चेहरे की उदासी, आंखों की चुप्पी और आवाज की कंपकंपी सब कुछ कह चुकी थी।
मालती ने उसके पास बैठकर उसकी पीठ पर हाथ रखा,
“बेटा, हम सब अब एक परिवार की तरह हैं। तुम्हारे बिना ये घर खाली-खाली लगता है। मैं तो अपने लिए खाना बनाऊंगी ही, तुम्हारे लिए भी बना दूंगी। चलो, साथ खाएँगे। लेकिन अगर तुम्हारे मन में कोई दर्द है, तो मुझसे मत छुपाओ। मां समझो मुझे। शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं।”
उस एक छुअन में जो ममता थी, वह बरसों से जमी पीड़ा को तोड़ गई। अमृता की आंखें नम हो गईं। गले में कुछ अटका हुआ सा महसूस कर उसने कहा,
“मेरी मां मुझे जन्म देते ही चल बसी थीं… मौसी ने पाला, पर कभी मुझे अपना नहीं माना। हर बात पर सुनना पड़ता कि मैं ‘अपशगुन’ हूं जिसने मां को छीन लिया।
पापा मौन रहे… उन्होंने मुझे होस्टल में डाल दिया, शायद ताकि मैं मौसी के तानों से दूर रहूं। अब नौकरी है, लेकिन घर नाम की कोई जगह नहीं है जहां लौट सकूं।"
मालती ने उसे गले लगाते हुए बस इतना कहा,
“अब ये घर तुम्हारा है। और मैं तुम्हारी मां।”
अमृता सिसकते हुए सोचने लगी—कभी कोई अनजान इतना अपना भी हो सकता है?
छह महीने पहले की वही शाम याद आ गई, जब वह पहली बार दिल्ली आई थी। अजनबी शहर, अजनबी चेहरे… और उसी अजनबीपन में एक आत्मीय आवाज ने कहा था,
“बेटा, तुम बीमार लग रही हो। पास ही मेरा घर है, चलो, तुम्हें तुम्हारी पसंद का खाना बना कर खिलाती हूं।”
उस समय एक अनजान पर यकीन करना कठिन था, लेकिन दुकानदार की सच्ची गवाही और मालती के स्नेह ने उसे मजबूर कर दिया।
उस दिन की मुलाकात जैसे दोनों के जीवन में एक नई शुरुआत बन गई।
अमृता ने ही सुझाव दिया था कि क्यों न ऊपर की मंजिल को लड़कियों के लिए खोला जाए? और देखते ही देखते, वह पेइंग गेस्ट हाउस एक घर बन गया — जिसमें दस लड़कियाँ थीं, हँसी थी, अपनापन था… और एक मालती थीं, जो सबके लिए मां जैसी थीं।
मालती का स्नेह बँटता नहीं था — हर लड़की की तबीयत, पसंद, तकलीफ का उन्हें खयाल रहता। पर अमृता को उन्होंने हमेशा एक अलग स्नेह से देखा।
एक बार फिर, दीवाली की रात, जब सभी लड़कियाँ अपने घरों में थीं, अमृता और मालती एक-दूसरे का सहारा बनी थीं।
अगले दिन, अमृता के पापा मिलने आए। हमेशा की तरह कमरे में न आकर उसे नीचे बुलाया। लेकिन अमृता जब ड्राइंग रूम के पास पहुँची तो अंदर से आती आवाज़ ने उसके कदम रोक लिए।
मालती कह रही थीं, “मेरी मां भी मुझे जन्म देते ही चल बसी थीं… शायद इसी कारण मैं अमृता के दर्द को बेहतर समझती हूं। वो मेरे जीवन में यूँ आई जैसे अधूरी कहानी का दूसरा पन्ना। मैंने अपने बेटे रोहित से बात की है… अगर अमृता और आप चाहें, तो मैं उसे अपनी बहू बनाना चाहती हूं।”
अमृता की सांसें थम गईं।
आज मालती का स्नेह, उनका वो ‘मां’ जैसा व्यवहार… सब अर्थ पा गया था। वह चुपचाप अंदर गई तो मालती ने उसका हाथ थाम लिया।
उसके चेहरे की हल्की सी मुस्कान और झुकी पलकें देख कर मालती ने सब समझ लिया।
वे बोलीं, “अब तक तुम एक अतिथि की तरह इस घर में आईं, लेकिन अब मेरी बहू बनकर मेरी दुनिया में उजाला भर दो।”
अमृता की आंखें भर आईं।
वह उनके पैरों की ओर झुकी, तो मालती ने उसे उठाकर सीने से लगा लिया।
“मैंने मां को तो नहीं देखा आंटी… लेकिन होतीं तो आप जैसी ही होतीं। "
पीछे खड़े अमृता के पिता की आंखों से भी आंसू बह चले — एक बेटी का जीवन, जिसे वे हमेशा डर और तानों से बचाते आए, आज सच्चे मायने में एक घर और एक मां पा चुकी थी।
इस बार की दीवाली सिर्फ दीपों की नहीं, दिलों के रौशन हो जाने की थी।
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