मां घर की असली रोशनी - Hindi Kahani | Moral Story in hindi
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“माँ, आप जल्दी से अच्छी सी साड़ी पहन लो… और हाँ, थोड़ा-सा फेस पैक भी लगा लो, आपका रंग बहुत गहरा होता जा रहा है।”
अपनी आवाज़ में एक अजीब-सी बेचैनी और उतावलापन लिए श्री ने कहा।
“नीरजा! सुनो… माँ को ज़रा-सी क्रीम पाउडर भी लगा देना। आज शाम मेरी कंपनी के मालिक आ रहे हैं चाय पर। माँ बिल्कुल स्मार्ट लगनी चाहिए।”
नीरजा हल्की-सी मुस्कान के साथ बोली—“जी…” और फिर सासु माँ के कमरे की ओर बढ़ गई।
माँ अपनी खाट पर बैठी, हाथ में किताब थामे, चश्मे के पीछे से अक्षरों को पढ़ रही थीं।
नीरजा ने साड़ी बदलने और चेहरे पर चमक लाने का पुरज़ोर प्रयास किया। मगर माँ तो माँ थीं—दृढ़, अडिग।
उन्होंने ज़रा भी बिना हिचके कहा—
“मुझे कुछ नहीं करना। जब श्रृंगार करने की उम्र थी, तब क्रीम-पाउडर नहीं लगाया… अब क्या लगाऊँ?
जा तू अपना नाश्ता बना।
हाँ… और श्री से कह देना—अगर माँ को माँ कहने में शर्म आती है तो मैं अपने कमरे से बाहर नहीं आऊँगी।
मेहमान चले जाएँ, तब बुला लेना।”
नीरजा हल्का-सा मुस्कुराई।
दस साल हो गए थे उसे इस घर में।
वह जानती थी—माँ बाहर से नारियल जैसी कड़क हैं… पर भीतर से ममता का अथाह सागर।
आख़िर तीस साल अध्यापिका रहीं, अनुशासन और स्वाभिमान उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था।
कुछ ही देर में श्री अपने मालिक समीर के साथ घर में दाखिल हुआ।
नीरजा ने चाय-नाश्ते की मेज सजा दी।
समीर ने चारों ओर देखते हुए पूछा—
“श्री! क्या आज माताजी कहीं गई हुई हैं? उनके भी दर्शन हो जाते तो…”
श्री बोल पाता, उससे पहले ही नीरजा ने सहजता से कहा—
“माँ अपने कमरे में ही हैं। मैं बुला देती हूँ।”
समीर तुरंत बोला—
“अरे! मैं वहीं माताजी से मिल लूँगा। उन्हें परेशान क्यों करना?”
श्री संकोच में माँ के कमरे तक गया।
धीरे से आवाज़ दी—
“माँ! देखो, आपसे समीर सर मिलने आए हैं।”
माँ ने किताब को एक ओर रखते हुए चश्मा उतारा और मुस्कुराईं—
“आओ बेटा! मुझे लगा बच्चों के बीच में मैं क्या बात करूँगी, बस इसी वजह से…”
समीर ने झुककर उनके चरण स्पर्श किए।
उनकी आँखों में सम्मान और चेहरे पर आत्मीयता झलक रही थी।
पास की कुर्सी पर बैठते ही बातचीत शुरू हो गई।
कुछ ही देर में समीर मंत्रमुग्ध हो गया—
माँ की आवाज़ में वही ऊर्जा, वही विश्वास।
गीता के श्लोक, कबीर की साखियाँ, जीवन के प्रेरक प्रसंग—
हर शब्द जैसे आत्मा को छू रहा था।
“आप लोग यहाँ कितने समय से हैं?”—समीर ने पूछा।
माँ ने कहा— “यहाँ आए तो चार-पाँच साल ही हुए हैं। पहले हम आगरा में रहते थे। वहीं सरकारी स्कूल में मैंने पच्चीस साल तक पढ़ाया।”
अचानक समीर चौंक पड़ा— “क्या आप… दीपिका मैम?”
माँ अचंभित होकर बोलीं— “तुम मेरे नाम से…?!”
समीर की आँखों में चमक तैर आई—
“मैम, मैं भी उसी स्कूल में था। सिमर मैम की कक्षा में।
आपने मुझे कभी सीधे नहीं पढ़ाया… लेकिन आपकी आवाज़, आपकी सभाओं में दिए गए भाषण…
आज भी मेरे दिल में गूंजते हैं। वही आत्मविश्वास, वही रोशनी… आज भी आपके चेहरे पर है।”
माँ की आँखें नम हो गईं।
उनके चेहरे पर गर्व और आत्मीयता का उजाला खिल उठा।
समीर ने विदा लेते हुए श्री से कहा— “आप बहुत भाग्यशाली हैं।
मैम जैसी माँ… जिनके ज्ञान की लौ से चेहरा अब भी चमक रहा है।”
यह सुनते ही श्री के दिल में जैसे किसी ने आईना रख दिया हो।
कुछ ही देर पहले की अपनी बात याद कर वह भीतर ही भीतर पिघल गया।
माँ की उम्र ढकने के लिए पाउडर ढूँढ़ रहा था,
जबकि माँ के चेहरे का नूर उनकी शिक्षा, उनके संस्कार और उनके ज्ञान से था—
जो किसी सौंदर्य प्रसाधन से कहीं अधिक जगमगाता है।
श्री की आँखें झुक गईं, और मन में एक ही विचार उमड़ पड़ा—
“माँ वास्तव में घर की रोशनी हैं… जिन्हें सजाने की नहीं, सिर्फ़ पहचानने की ज़रूरत होती है।”
नैतिक संदेश (Moral):
“माँ की खूबसूरती उनके चेहरे की चमक में नहीं, बल्कि उनके ज्ञान, त्याग और ममता में होती है।
सच्चा श्रृंगार वही है, जो दिलों को छू ले और आत्मा को रोशन कर दे।”

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