घर जैसा खाना - Hindi Kahaniyan | Kahani In Hindi | Story In Hindi

घर जैसा खाना - Hindi Kahaniyan | Kahani In Hindi | Story In Hindi

Hindi Kahaniya 


सविता जी और उनके पति रामनाथ गोयनका अपने फ्लैट में अकेले रहते थे। उम्र ढल चुकी थी, और बेटी — जो उनके बुढ़ापे का सहारा हो सकती थी — विवाह कर पति संग सात समंदर पार विदेश में जा बसी थी।

अब दोनों का संसार एक-दूसरे तक ही सीमित था।

बीमारी की दस्तक

एक शाम अचानक रामनाथ जी को तेज़ बुखार चढ़ गया। सूखी खाँसी, बदन दर्द और बेचैनी...

“चलो, कल टेस्ट करवा ही लेते हैं,” सविता जी ने डरते हुए कहा।

रिपोर्ट आई तो जैसे उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

“पॉज़िटिव...” रामनाथ जी बुदबुदाए।

डॉक्टर ने दवाइयाँ दीं और ‘होम आइसोलेशन’ में रहने की सलाह दी।

पर किस्मत को शायद और परीक्षा लेनी थी। तीसरे ही दिन सविता जी भी कोरोना से ग्रसित हो गईं।

अब सबसे बड़ी समस्या थी — खाना।

“रामनाथ, अब हम दोनों ही बीमार हैं... खाना कौन बनाएगा?” सविता जी ने थके स्वर में पूछा।

पास-पड़ोस से मदद की उम्मीद भी टूट चुकी थी। जिन पड़ोसियों संग रोज़ हालचाल होती थी, वही अब रास्ता बदलकर निकल जाते। जैसे वे अछूत हों।

मजबूर होकर उन्होंने टिफ़िन मंगाना शुरू किया।

लेकिन जब पहला डिब्बा खोला, तो दोनों की आँखें भर आईं।

तेल से तैरती सब्ज़ियाँ, तीखे मसाले, बासी-सी रोटियाँ...

“ये कैसे खाएँगे हम?” सविता जी ने काँपती आवाज़ में कहा।

पर मरता क्या न करता। आँसुओं के साथ, मन मारकर वे टिफ़िन खाते रहे।

हर कौर उन्हें अपनी लाचारी का एहसास कराता।


नई शुरुआत का बीज

जब उनकी रिपोर्ट निगेटिव आई, तो जैसे जीवन में नई रोशनी लौट आई।

“रामनाथ, हम ही कितने बेसहारा महसूस कर रहे थे। सोचो, जिनके घर में कोई नहीं... उन्हें तो कितना कठिन होता होगा।”

“सही कह रही हो सविता। क्यों न हम कुछ करें... घर जैसा खाना पहुँचाएँ उन तक।”


योजना बनी।

सविता जी ने किचन संभाला, सहायिका को बुलाया। रामनाथ जी ने जिम्मा लिया – खाना पहुँचाने का।

पहले ही दिन दो ऑर्डर आए।

डिस्पोज़ेबल बॉक्स में गरमागरम दाल-चावल, नरम रोटियाँ और हल्की सब्ज़ी... सविता जी ने दिल से भोजन बनाया।

और जब दूसरे दिन चार ऑर्डर मिले, तो जैसे उनके मन में नई ऊर्जा भर गई।

धीरे-धीरे ऑर्डर बढ़ने लगे।

सोया-बड़ी की सब्ज़ी, राजमा, सेम, सलाद... सब कुछ पौष्टिक और ताज़ा। लोग खाने के साथ दुआएँ भी भेजने लगे।


बढ़ता कारवाँ

जल्द ही उनका छोटा किचन इस काम के लिए छोटा पड़ गया।

सोसायटी के अध्यक्ष ने क्लब हाउस खोल दिया।

अब ये सिर्फ दंपत्ति का काम न रहा, बल्कि पूरी सोसायटी का मिशन बन गया।

महिलाएँ आटा गूँथने, रोटियाँ बेलने और सब्ज़ियाँ काटने लगीं।

पुरुष मास्क और दस्ताने पहनकर पैकिंग का काम करने लगे।

युवा लड़के-लड़कियाँ मुस्कुराते हुए खाना डिलीवर करने निकल पड़ते।

कहाँ दो ऑर्डर से शुरू हुआ काम अब चालीस-पचास तक पहुँच गया था।


दिलों की गर्माहट

एक दिन, भोजन लेने आई एक महिला के हाथ काँप रहे थे।

“आप लोगों का दिया खाना... मेरे बीमार पति ने हफ्तों बाद मुस्कुराकर खाया है। भगवान आपको सलामत रखे।”

उसकी आँखों में आँसू थे। सविता जी और रामनाथ जी भी भावुक हो उठे।

उनके लिए यही सबसे बड़ी कमाई थी — लोगों की दुआएँ, उनके चेहरों की मुस्कान।


समापन

गोयनका दंपत्ति ने अकेलेपन और मजबूरी के अंधेरे से निकलकर दूसरों की ज़िंदगी में रोशनी बाँट दी।

उनका ‘घर जैसा खाना’ सिर्फ पेट नहीं भरता था, बल्कि मन में यह विश्वास जगाता था — मानवता आज भी ज़िंदा है।

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